দিওয়ান-এ-গালিব’-এর
পাঁচটি কবিতা
অনুবাদ: শঙ্কর বন্দ্যোপাধ্যায়
৫৩
रहा गर कोई ता कयामत सलामत
फिर इक रोज मरना है, हज़रत सलामत
जिगर को मिरे, इश्क-ए-खूनाबः मशरब
लिखे है ‘खुदाबन्द-ए-नेमत सलामत
अलर्रग्म-ए-दुश्मन, शहीद-ए-वफ़ा हूं
मुबारक, मुबारक; सलामत, सलामत
नहीं गर सर-ओ-बर्ग-ए-इदराक-ए-मानीं
तमाशा-ए-नैरंग-ए-सूरत, सलामत
প্রলয় অবধি যদিও বা কেউ থেকে যায় সকুশল
একদিন হায় যেতে হবে ছেড়ে এ জীবন সকুশল।
রক্তপিপাসু প্রেম খেলা করে আমার হৃদয়ে জেনো
লেখা আছে সেথা, প্রভু চিরদিন তুমি থেকো সকুশল।
অমিত্র আমি বৈরীর, আমি শহীদ হয়েছি প্রেমে
সব শুভ হোক, সব শুভ হোক, সকুশল, সকুশল।
সংসারবোধ নাই বা থাকল, কী বা এসে যায় তাতে
রূপের জাদুর খেলা চিরদিন বেঁচে থাক সকুশল।<br>
৫৭
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
अगर शराब नहीं इंतिज़ार-ए-साग़र खींच
कमाल-ए-गर्मी-ए-सई-ए-तलाश-ए-दीद न पूछ
ब-रंग-ए-ख़ार मिरे आइने से जौहर खींच
तुझे बहाना-ए-राहत है इंतज़ार ऐ दिल
किया है किस ने इशारा कि नाज़-ए-बिस्तर खींच
तिरी तरफ़ है ब-हसरत नज़ारा-ए-नर्गिस
ब-कोरी-ए-दिल-ओ-चश्म-ए-रक़ीब साग़र खींच
ब-नीम-ग़म्ज़ा अदा कर हक़-ए-वदीअत-ए-नाज़
नियाम-ए-पर्दा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर से ख़ंजर खींच
मिरे क़दह में है सहबा-ए-आतिश-ए-पिन्हाँ
ब-रू-ए-सुफ़रा कबाब-ए-दिल-ए-समंदर खींच
হে জীবন, তুমি কামনার থেকে হোয়োনা কখনও দীর্ঘায়িত
না থাক আসব, পানপেয়ালার অপেক্ষা হোক দীর্ঘায়িত।
জানতে চেওনা তার মুখ চেয়ে অথৈ প্রয়াস কেমন তর
কণ্টক তুমি আয়নার থেকে জহরত কর উৎপাটিত।
শান্তির আশে অপেক্ষমান যদি বা তুমি হে হৃদয় আমার
কে যেন করেছে ইঙ্গিত, হোক শয্যার সুখ প্রলম্বিত।
তোর দিকে আছে রোমাঞ্চকর রং-বেরঙের ফুলের শোভা
বিরোধীজনের অন্ধ চেতন হোক আরও আরও দীর্ঘায়িত।
সব অহমিকা ভরা থাক তোর আধেক আঁখির দাম্ভিক কোণে
পোড়া মন ভরা কিংখাব থেকে তরবারী হোক নিষ্কশিত।
আমার পেয়ালা ভরা আছে হৃদি অগ্নিগর্ভ মদির পানীয়
যা হয় তা হোক, হোক ঝলসানো সাগর হৃদয় উৎসারিত।
৮৮
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन
ग़र्रा-ए-औज-ए-बिना-ए-आलम-ए-इमकाँ न हो
इस बुलंदी के नसीबों में है पस्ती एक दिन
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
नग़्मा-हा-ए-ग़म को भी ऐ दिल ग़नीमत जानिए
बे-सदा हो जाएगा ये साज़-ए-हस्ती एक दिन
धौल-धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेवा नहीं
हम ही कर बैठे थे ‘ग़ालिब’ पेश-दस्ती एक दिन
নিজেকে উজাড় কোরো সুরার আসরে ওগো কোনো একদিন
নাহলে নেশার ঝোঁকে খুনসুটি করে যাব কোনো একদিন
অভিমানী হোয়ো না গো কোনোদিন ছোঁও যদি সাফল্যের চূড়া
সব শ্রী’র ভাগ্যে জেনো লেখা আছে ঝরে পড়া কোনো একদিন।
ধার করে নেশা করে ভেবে গেছি মনে মনে আমি চিরদিন
সার্থক হবেই মোর এ উপোসী উচ্ছলতা কোনো একদিন।
বেদনাবিধুর সুর পরম প্রাপ্তি বলে মেনে নিতে শেখ ওরে মন
নিস্তব্ধ হবেই এই জীবনসঙ্গীত হায় ধীরে ধীরে কোনো একদিন
আপাদমস্তক এক অভিমানী নারী সে যে কলহ স্বভাব সে তো নয়
আমিই করেছি আগে গোলযোগ গালিব সে কোনো একদিন।
৫৫
गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज
क़ुमरी का तौक़ हल्क़ा-ए-बैरून-ए-दर है आज
आता है एक पारा-ए-दिल हर फ़ुग़ाँ के साथ
तार-ए-नफ़स कमंद-ए-शिकार-ए-असर है आज
ऐ आफ़ियत किनारा कर ऐ इंतिज़ाम चल
सैलाब-ए-गिर्या दरपय-ए-दीवार-ओ-दर है आज
কুসুমকানন এ কোন আবেশে রঙহারা হোল আজ
দোরের শিকল দোয়েলের পায়ে বিতংস হোল আজ।
প্রতি হাহাকারে ভেসে আসে আজ টুকরো টুকরো মন
শ্বাসের সলতে দড়ি বেয়ে ওঠা শিকারী হয়েছে আজ।
ওগো ও শান্তি, কূল দাও, ওগো গোছানো সময়, চল
অশ্রুর ঢেউয়ে সারা ঘর-দোর বানভাসি হোল আজ।
৮৯
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं
दिल-आशुफ़्तगाँ ख़ाल-ए-कुंज-ए-दहन के
सुवैदा में सैर-ए-अदम देखते हैं
तिरे सर्व-क़ामत से इक क़द्द-ए-आदम
क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
सुराग़-ए-तफ़-ए-नाला ले दाग़-ए-दिल से
कि शब-रौ का नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
যেদিকে তাকিয়ে দেখি গো তোমার চরণচিহ্ন আঁকা
সেখানে বাগান কেয়ারী কেয়ারী ফুলে ফুলে আছে ঢাকা।
ঠোঁটের ও তিল দেখে ছটফট করে যে প্রেমিক মন
স্বর্গীয় সব তামাসা সে দেখে কালো দাগে লেগে থাকা।
তোমার ও উঁচু শিখরের চুড়া থেকে ওগো প্রিয় সখী
সাধারণ উঁচু প্রাণীর দুঃখ কিছু কম যায় দেখা।
প্রসাধনরতা, মুকুরে বিলীন, ফিরে দেখ একবার
আমার নয়নে আছে কত রঙে কত কি চাহিদা আঁকা।
বিরহ রাতের কাকুতির দাগ এ হৃদয়ে খুঁজে পাবে
রাতের পথিক রেখে যায় পথে চরণ চিহ্ন আঁকা।
গালিব ধরেছি ফকিরের বেশ, এবং ঘুরেছি পথে
দয়ালু হৃদির কত না তামাসা কত ভাবে যায় দেখা।